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About “Gaaliyan : Ek Vishleshan”
In “गालियाँ : एक विश्लेषण,” Anirudh Dixit takes readers on a captivating journey through the world of swear words. With a humorous anecdote about a friend’s casual use of profanity, he invites us to question the appropriateness and emotional weight of these terms. Are we really deserving of such insults?
Dixit explores how swearing often serves as a shortcut for expressing complex feelings, revealing their surprising versatility—from joy to frustration. He also tackles the intriguing connection between swearing and gender dynamics, challenging us to reconsider societal norms surrounding these colorful expressions.
As he provocatively questions why society both embraces and rejects profanity, Dixit expertly blends humor with sharp insights, making this post an engaging read.
Curious about the emotional landscape hidden within these taboo words? Read the post and discover the nuances of language and emotion!
About Anirudh Dixit
Anirudh Dixit is a keen observer of societal behavior and language, known for his thought-provoking analyses and engaging writing style. With a background in social commentary, he skillfully navigates complex themes with both humor and depth.
“कहाँ है भाई?”
मैंने अपने एक मित्र से फ़ोन पर पूछा? उसने सुर और लय को अपने शब्दों में भरते हुए बड़ी सरलता से उत्तर दिया –
“रस्ते में हूँ…आ रहा हूँ। बहनच*द! “
ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि उसने मुझे इस शब्द (बहनच*द) से या ऐसे किसी और शब्द (मादरच*द, भो*ड़ीवाले, बहन के ल*ड, ल*ड़े, चू*तिया इत्यादि) से सम्बोधित किया हो। पर इस बार मैंने इस बात पर गौर फ़रमाया कि क्या सच में…क्या मैं इन सम्बोधनों के योग्य हूँ? काफी जांच-परख करने के बाद मैंने पाया कि मैं नाकारा निकम्मा इन सम्बोधनों के लायक ही नहीं हूँ। अगर बहनच*द शब्द पर गौर फरमाएं तो मैं कहूंगा कि मैंने आजतक जिसे भी बहन माना है उसके बारे में ऐसा ख्याल तक नहीं लाया, कुछ करना तो दूर की बात है। इसी प्रकार बाकी शब्द जैसे मादरच*द, भो*ड़ीवाले, बहन के ल*ड, ल*ड़े, चू*तिया इत्यादि हैं, मैं खुशकिस्मती से इनकी कसौटियों पर खरा नहीं उतरा।
इस पूरे वाक़ियाह से एक बात तो साफ़ है कि इन शब्दों को जिन्हें समाज गालियां कहता है उनके असल अर्थ और समाज द्वारा समझे जाने वाले अर्थ में अत्याधिक भिन्नता है। मेरा विश्लेषण तो यह कहता है कि लोगों के पास जब अपनी भावनाओं को प्रकट करने के लिए शब्द नहीं होते हैं या समय की कमी होती है तब वे गालियों का इस्तेमाल करते हैं। जैसे – मेरे मित्र ने अपनी कुंठा को ज़ाहिर करने के लिए बहनच*द शब्द का सटीक इस्तेमाल किया और केवल कुंठा ही नहीं उसने अपनी पूरी मनःस्थिति को उस एक शब्द में भर दिया। इन शब्दों के अभ्यस्त व्यक्ति अपनी सभी प्रकार की भावनाओं को इन्ही गिने चुने शब्दों में बयां कर सकते हैं। उदाहरणार्थ –
ख़ुशी – तेरे भाई ने माँ च*द दी! बहनच*द!
दुःख – माँ च*दी पड़ी है, यार!
डर – ग*ड फट रही।
गुस्सा – तेरी माँ च*द दूँगा।
आश्चर्य – भैंचो!, माँ की च*त।
एक बात तो साफ़ है कि गालियों का इस्तेमाल मात्र रोष को पैदा करने और भावनाओं को प्रकट करने के लिए किया जाता है अन्यथा नहीं। क्योंकि अगर ऐसा न होता तो लड़कियों का इन गालियों को देने का क्या मतलब। मैंने एक लड़की को कहते सुना – “तेरी माँ च*द दूँगी, बहनच*द! चला जा यहाँ से।” यह सुनने के बाद मैं कई दिवस लों हैरत में सोचता रहा- “कैसे दीदी? कैसे? यह शक्ति ईश्वर ने आपको नहीं दी है।” परन्तु दीदी की भी वे लयात्मक गालियाँ मात्र शब्दों की कमी और भावों की व्यंजना थीं अन्यथा कुछ नहीं।
एक बात मुझे अब भी परेशान कर रही थी कि चलो भावनाएं भी यदि व्यक्त करनी हैं और शब्दों की भी कमी है। तो किन्हीं भी शब्दों को चुना जा सकता था। भला माताओं- बहनों को बीच में लाने की क्या आवश्यकता थी। इस बात का पता लगाने के लिए तो हमें उस समय में झाँकना पड़ेगा जब से ये सभी गालियां समाज में प्रचलित हुईं। इंटरनेट पर मिली जानकारी के अनुसार गालियों की शुरुआत कोसने से शुरू हुई थी।
कोसना जैसे कह दिया – “जा तेरे कीड़े पड़ें”। धीरे-धीरे कोसने के लिए प्रयुक्त होने वाले वाक्यों में माँ, बहन, बेटी और बीवी को भी शामिल कर लिया गया क्योंकि कोई भी पुरुष यह स्वीकार नहीं कर सकता था कि उसके होते हुए कोई पर-पुरुष उसके घर की स्त्रियों को हाथ लगा दे। क्योंकि बाप, भाई और बेटे के लिए किसी को कोई परेशानी नहीं है इसीलिए उन बेचारों के नाम पर एक भी गाली रजिस्टर्ड नहीं है। यह सौभाग्य हमारे समाज ने केवल स्त्रियों को दिया है। मैं कहूंगा कि यहाँ पर पुरुषों के अधिकारों का हनन हुआ है। हमारे समाज को कोई एक गाली तो पुरुष के नाम पर भी रखनी चाहिए थी। निराश ना हों पुरुषों हमारा भी समय आएगा।
एक बात अब भी मुझे खाये जा रही थी कि गालियां जो की विश्वभर में उपस्थित सभी समाजों में धड़ल्ले से उपयोग की जाती हैं। वही समाज उन्हें बुरा क्यों मानते हैं? क्या गालियां जो कि भावनाओं की व्यंजना के लिए उपयोग किये जाने वाले शब्द मात्र हैं उन्हें समाज इतनी असहजता से क्यों देखता है?
तो क्या गालियां सच में खराब हैं? इस सवाल का जवाब तो मैं नहीं दूंगा। परन्तु इतना ज़रूर कहूंगा कि अत्याधिक गालियाँ देने वाले लोग भी कुछ लोगों के सामने कितनी भी आवश्यकता होने पर गाली नहीं देते। जैसे अगर कोई गालियां देने की चरम सीमा भी पार कर गया हो फिर भी वह छोटे बच्चों के आगे गाली नहीं देते; कोई गुरु के आगे गाली नहीं देता; कोई माँ के आगे नहीं देता तो कोई बाप के आगे नहीं देता। तो क्या हम ये मान सकते हैं कि गालियां देना गलत है क्योंकि आप इन खूबसूरत वाक्यों को आने वाली पीढ़ी को सिखाना नहीं चाहते। परन्तु इस मामले में निष्कर्ष पर पहुंचे इससे पहले इस एक वाक़ियाह पर भी नज़र डाल लेनी चाहिए। एक दिन एक पिता अपने पुत्र को समझा रहा था गलियां देना कितना बुरा है आदि आदि –
बेटा – “मैंने तो हड़का दिया बहनच*द को।”
बाप – “बेटा, ऐसे किसी को गाली नहीं देते।”
बेटा – “वो भो*ड़ी का मुझे गुस्सा दिला रहा था।”
बाप – “फिर गाली…”
बेटा – “उस मादरच*द ने…”
बाप – “बहन के ल*ड…तुझे समझ नही आ रहा।”
यह पोस्ट विश्वभर के समाजों में प्रचलित इस प्रथा पर एक व्यंगात्मक विश्लेषण मात्र है। गालियां देना अच्छा है या बुरा यह निश्चय समाज को स्वयं करना चाहिए। लेखक का किसी की भावनाओं को ठेस पहुँचाने का कोई इरादा नहीं है। त्रुटियों के लिए क्षमा प्रार्थी है।