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तिशा : एक संस्मरण

Immerse yourself in the poignant world of “Tisha: A Heartwarming Tale of Love, Loss, and Social Service.” This captivating Hindi Story by Anirudh Dixit explores the depths of human emotion, the power of love, and the importance of giving back to society.

a boy and girl sitting on the ground
About Story and Author

About the Story : Tisha – Ek Sansmaran

A Tale of Love, Loss, and the Human Spirit

“तिशा : एक संस्मरण” is a captivating Hindi story by Anirudh Dixit that delves deep into the human psyche, exploring themes of love, loss, friendship, and the pursuit of a meaningful life. The story revolves around the lives of two young individuals, Anirudh and Tisha, who are drawn together by their shared passion for social service.

As the narrative unfolds, readers are introduced to a world of challenges and triumphs. Anirudh, a young and idealistic man, finds himself drawn to Tisha, a compassionate and determined woman who dedicates her life to helping others. Their connection is forged through shared experiences, mutual respect, and a deep understanding of each other’s aspirations.

The story is not just a love story; it is a poignant exploration of the human condition. It delves into themes such as the importance of giving back to society, the pursuit of one’s dreams, and the impact of loss on the human heart. Through its compelling characters and thought-provoking narrative, “तिशा : एक संस्मरण” invites readers to reflect on their own lives and the choices they make.

About the Author : Anirudh Dixit

Anirudh Dixit is a Hindi author known for his insightful and emotionally charged storytelling. His works often explore the nuances of human nature and the complexities of modern society. “तिशा : एक संस्मरण” is one of his most acclaimed stories, praised for its depth, sensitivity, and literary merit.

❀❀❀

ना तुम रहीं
ना मैं रहूँगा
पर तुम भी हो
और मैं भी रहूँगा
इसी तरह

❀❀❀

“जय श्री कृष्णा! माँ।” चहकते हुए, मैं पाठशाला की ओर चल दिया। पढ़ने नहीं, पढ़ाने। बारहवीं पास करने के बाद कॉलेज जाने की जब बारी आई थी मैं तब भी इतना प्रसन्न नहीं था, जितना आज हूँ। शायद प्रसन्नता के कारण भी पर्याप्त हैं। आखिर, मैं निःस्वार्थ भाव से और सेवा को अपना लक्ष्य मानकर वहाँ जा रहा हूँ। यह सब सोचते-सोचते मैं मुख्य सड़क तक पहुँच गया। वहाँ से ऑटो में बैठकर पाठशाला तक पहुँचा। पाठशाला की दीवार पर कई बोर्ड लगे हुए थे। किसी पर नृत्य तो किसी पर योग सिखाये जाने की बात लिखी हुई थी। मेरा मन यह सब देखकर और भी प्रफुल्लित हो उठा। 

मैंने पाठशाला के मुख्य द्वार से प्रवेश किया। द्वार पर ही उपस्थित रिसेप्शनिस्ट से दी के बारे में पूछा। उन्होंने मुझे इंतज़ार करने के लिए कहा और बताया कि दी अभी थोड़ी व्यस्त हैं। मैं पास ही पड़ी कुर्सी पर बैठ गया और वहीं से पाठशाला को देखने लगा। अलग-अलग कमरों में बच्चे पढ़ रहे थे। बच्चों के चहकने की आवाज़ों से ही उनके हर्ष और उल्लास का अंदाज़ा लगाया जा सकता था। मैं अभी यह सब देख ही रहा था कि बच्चों की एक रेल सीटी देते हुए जीने से उतरी। उनके हाथों में पेंसिल, रबर और कॉपियाँ थीं, ऐसा लग रहा था मानों सभी पहली बार स्कूल जाने की तैयारी कर रहे थे। परन्तु उनकी वेशभूषा ने मेरे हृदय को विचलित कर दिया। वे कोई आम परिवारों के बच्चे नहीं थे। दी शहर की झुग्गियों से चुन-चुनकर सबको यहाँ लाई थीं और मैं भी तो यही सब सुनकर यहाँ आया था। 

“अनिरुद्ध” स्वर जाना पहचाना था। मैंने देखा दी भी आ गयी थीं। मैंने झुककर नमस्ते किया। अभिवादन स्वीकार करते हुए दी ने कहा – “आओ, ऑफिस में चलकर बात करते हैं।” हम दोनों ऑफिस की ओर बढ़ चले। दी ने मुझसे बैठने के लिए कहा और लैपटॉप की ओर देखते हुए मुझसे पूछा – “तुम अभी क्या कर रहे हो ?” मैं उनका अभिप्राय समझते हुए बोला “दी, अभी तो मैं बी.कॉम कर रहा हूँ।” उन्होंने मेरी ओर देखते हुए पूछा – “आगे क्या करने का इरादा है और पाठशाला में समय दे पाओगे?” मैंने गर्वित स्वर में उत्तर दिया – “दी, दर्सल , मैं साथ ही चार्टर्ड अकाउंटेंट की भी तैयारी कर रहा हूँ और समय तो निकालने से निकल ही आएगा।” दी ने मुस्कुराते हुए कहा – “मैं तिशा को बोल देती हूँ वो तुम्हें काम समझा देगी। तुम बैठो मैं उसे भेजती हूँ।”

मैं ऑफिस का मुआएना करने लगा। जैसे दी मुझे ही इंटीरियर डिजाइनिंग का काम सौंप कर गयी हों। थोड़ी ही देर में तिशा ने कमरे में प्रवेश किया। मैंने उसकी तरफ देखा और देखता ही रह गया। गेंहुआ रंग, तेज़ नैन-नक्श और घने बालों वाली एक लड़की मेरे सामने थी। परन्तु आकर्षण का केंद्र उसके चेहरे पर व्यंजित हो रहा आत्मविश्वास था। उसने विनम्र स्वर में पूछा – “आप ही अनिरुद्ध हैं ?” 

“जी, जी। आप तिशा! ” मैंने होश में आते हुए उत्तर दिया।

“हाँ ” – थोड़ा मुस्कुराकर कहा। 

“आप यहाँ किस प्रकार योगदान दे सकते हैं ?”

“मैं बच्चों को पढ़ना चाहता हूँ और यह कार्य मैं बिलकुल मुफ्त करूँगा।”

“ठीक है। आप पाठशाला से कितनी दूर रहते हैं?”

“अराउंड फाइव किलोमीटर।”

“तो आप इतनी दूर से आना-जाना कैसे करेंगे?”

“आईल मैनेज।” – बिंदास अंदाज़ में। 

“देखो, अनिरुद्ध। इस बात को ध्यान से समझो, इस पाठशाला में भी तुम्हे उसी अनुशासन से कार्य करना होगा जैसे की किसी भी आम स्कूल में शिक्षक करते हैं। समय तो उनके सामान देना ही होगा वरन लगन तो उनसे भी अधिक चाहिए। जिसमे तुम तो सी. ऐ. की तैयारी कर रहे हो, तो तुम्हारे पास तो वैसे ही कम समय होगा।” इस बार स्वर में एक कठोरता थी। मानों कह रही हो, हम पर एहसान करने की ज़रूरत नहीं हैं।

मेरी तरफ से कोई प्रतिक्रिया न पाकर, स्वर को थोड़ा कोमल करते हुए कहा – ” यहाँ रोज़ाना कई लोग समाज सेवा की क्षणिक उत्तेजना लेकर आते हैं। कोई टी.वी. पर, कोई मूवी देखकर आता है तो कोई किसी दुखद विवरण को पढ़कर आता है और कोई अपने जीवन में किसी दुःख को देखकर। परंतु उत्तेजना शांत होते ही भाग खड़े होते हैं। केवल सद्भावना के बूते पर तो आप समाज के लिए कार्य नहीं कर सकते हैं। परंतु कुछ लोग तो और भी ओछे होते हैं जो समाज में सम्मान पाने के लिए समाज सेवा का चोगा पहन लेते हैं। तुमने दी की कहीं भी फोटो नहीं देखी होगी जबकि वे बच्चों के लिए दिलों-जान से कार्यरत हैं। वहीं कुछ लोग ऐसे भी हैं जो एक पौधा लगाकर वृक्षारोपण का जश्न मनाते हैं।”

मेरी उबासी को देखते हुए थोड़ा मुस्कुराकर किन्तु कठोर स्वर में बोली – “मेरा कार्य तुम्हे समझने का है आगे तुम्हारी मर्ज़ी। मैं फिर भी यही कहूँगी इस पर विचार करो। मैं भी बी.कॉम ही कर रही हूँ और…”

“बी.कॉम! कौन सा ईयर?” – बात काटते हुए पूछा। 

उसने खीझते हुए कहा – “प्रथम वर्ष है।”

“अरे वाह ! मेरा भी, फिर तो एक दूसरे की हेल्प कर सकते हैं  हम।” – मेरे स्वर में अचानक सजीवता आ गयी। 

उसके भाषण के प्रति मेरी अरुचि को भांपते हुए उसने पाठशाला के बारे में बताना शुरू किया। सब कुछ बताने के बाद उसने कहा- “अब आराम से घर जाकर सोचो और अगर सच में इच्छा हो तो कल से शुरू कर सकते हो। परंतु …” फिर अचानक उठी जैसे अब और समय मुझ पर बर्बाद ना करना चाहती हो। बाहर जाते हुए कहा – “जैसे भी हो दी को बता देना।” मैं भी पीछे-पीछे चल दिया। रस्ते में ही दी मिल गई। उन्होंने पूछा – 

“सब समझ आ गया?”

“हाँ, दी।”

“तो क्या फैसला किया?”

“वैसे तो फैसला पक्का ही है पर तिशा ने थोड़ा डरा दिया  है। अब तक मुझे यह शौकिया लग रहा था।”

“मैंने केवल सच्चाई बताई है!” तिशा क्रुद्ध स्वर में बोली। 

दी और मैं, उसका गुस्से में और भी प्यारा लग  रहा चेहरा देखकर हँसने लगा।  

पाठशाला से वापस आते वक़्त मेरे मन में कई विचार चल रहे थे और रह-रहकर तिशा का चेहरा सामने आ रहा था। यूं तो मैं पहले भी कई लोगों के व्यक्तित्व से प्रभावित हुआ था पर इस बार कुछ तो अलग था। परंतु अब मेरा वह प्रफुल्लित और गर्वित मन अपने ही प्रति शंका से भर गया था। क्या मैं भी बाकियों की तरह सम्मान और अपने को कुछ अलग दिखने के लिए ही वहाँ नहीं गया था। दी ने भी सी.ऐ. सुनते ही शायद तिशा को याद किया होगा। समय तो सच में नहीं है मेरे पास, पढ़ाई भी तो करनी है। दो-दो नाव में तो पहले ही पैर रखा हुआ है, अब तीसरी में और रखने चला था। मैं यह फिर भी नहीं समझ पाया कि ये सभी विचार तिशा की बातों के परिणामस्वरूप थे या पाठशाला में जो मेहनत करनी पड़ती उसके। आखिर, मैंने वापस न लौटने का फैसला किया। मेरी क्षणिक उत्तेजना शायद बातों से ही समाप्त हो गई थी।

परीक्षा के दिन करीब आ गए थे और मैंने तो ऊँट के मुँह में जीरे सी भी तैयारी नहीं की थी। बस मन में एक विश्वास था, सब हो  जाएगा। इस विश्वास का कारण क्या था, ना तो मैं यह जानता था और न ही मेरा दिमाग उस ओर मुझे जाने देता था। सहसा, मुझे तिशा का ख्याल आया। वो भी तो बी.कॉम कर रही है। वो शायद कुछ हेल्प कर दे, पर उसका मीडियम तो हिंदी होगा। चलो फिर भी बात करने में क्या हर्ज़ है। मैं पाठशाला की ओर चल दिया। पुरानी सभी यादें ताज़ा हो गईं। पाठशाला पहुंचकर तिशा के बारे में पता किया। वो अभी पढ़ा रही थी। मैंने वहीँ बैठते हुए रिसेप्शनिस्ट से पूछा – “तिशा, मैनली कौन सा सब्जेक्ट पढ़ाती हैं ?”

“वह हिंदी की टीचर हैं।” मुझे शंका भरी नज़रों से देखते हुए उसने उत्तर दिया। 

इतने में तिशा वहां आ गई। वही रंग रूप पर कुछ टेंशन में दिखाई दे रही थी। आते ही रिसेप्शनिस्ट से पूछा – “कौन आया है?”

“माफ़ करना यार, नाम नहीं पूछा।” मेरी तरफ इशारा करते हुए कहा। 

“मैं, अनिरुद्ध।”

“जी!”

“आपने शायद पहचाना नहीं, आपको याद होगा अपने समाज सेवा पर भाषण दिया था मुझे।”

“ओह ! तो भाषण याद है आपको। तो आप इस बार पढ़ाने की मंशा से आये हैं या भाषण का रिविज़न करने।” उसने हँसते हुए पूछा। 

“जी, इस बार तो पढ़ने की मंशा से आया हूँ। आपके भी बी.कॉम के एग्जाम होंगे। आपका मीडियम हिंदी तो नहीं हैं ?”

“हाँ यार, एग्जाम की टेंशन तो मुझे भी है वैसे मेरा मीडियम इंग्लिश है। मतलब तुम मुझसे पढ़ने आये हो?”

“हाँ, प्लीज़ मना मत करना।” मैंने नाटकीय ढंग से हाथ जोड़ते हुए कहा। 

“ये सब करने की ज़रूरत नहीं हैं। पर मैं कैसे पढ़ा सकती हूँ मेरा तो खुद का रिविज़न रहता है।”

“रिविज़न! यहाँ तो सिलेबस ही पूरा नहीं हुआ है और तुम मुझे पढ़ाओगी तो तुम्हारा भी तो रिविज़न होगा।”

“चलो मैं देखती हूँ। पर कहाँ पढ़ोगे?”

“मैं यहीं आ जाया करूँगा।”

“हूँ…” – कुछ सोचते हुए। 

“तो कल से!”

“एक बजे आ सकते हो?”

“हाँ, हाँ। फीस कितनी देनी होगी ?”

“बहुत पैसे हैं तुम्हारे पास? पढ़ तो लो पहले, क्या पता कितने दिन टिको। मैं बहुत बोर करती हूँ।” – थोड़ा हँसते हुए कहा। 

“ठीक है तो कल एक बजे।” मैंने चलते हुए कहा। 

मैं अगले दिन ठीक एक बजे पहुँच गया। तिशा ने मिलते ही कहा – 

“ओहो! ऑन टाइम।”

“डर, मैडम।”

“चलो शुरू करते हैं।”

तकरीबन डेढ़ घंटे तक उसके पढ़ाने और मेरे हूँ..हूँ करने के बाद उसने किताब बंद की। मैंने भी चैन की सांस ली। वो काफ़ी थक गई थी तो मैंने पूछा – 

“पानी लाऊँ ?”

“नहीं।”

“मैं ले आता हूँ, मुझे भी प्यास लगी है।”

“नहीं, मैं माँगा देती हूँ।”

“ठीक है। वैसे तुम यहाँ कब से पढ़ा रही हो ?”

तब तक पानी आ गया। उसने पानी पीते हुए बताया – 

“ठीक से याद नहीं पर शायद तीन साल पूरे हो जाएंगे अब। दसवीं के पेपर देने के तुरंत बाद से ही यहाँ पढ़ना शुरू कर दिया था।”

“तो तुम हो सच्ची समाज सेवी। इतनी कम उम्र से पाठशाला में सेवा प्रदान कर रही हो।”

“हाँ..हाँ। इस सब को छोड़ो और घर जाकर रिविज़न करो। आज जो कुछ किया है वह कल याद रहेगा तो ही आगे बढ़ेंगे।” हँसते हुए और झूठी कठोरता दिखते हुए उसने कहा। 

इसी प्रकार एक सप्ताह बीत गया। अब मैं पहले से अधिक पढ़ने लगा था। वह जितना समझती थी उससे भी आगे का पढ़कर जाया करता था। अब हमारे बीच का एकालाप वार्तालाप में परिवर्तित होने लगा। हालाँकि वह मुझसे ज़्यादा जानती थी परंतु फिर भी इतने ध्यान से सुनती थी जैसे मैं ही पढ़ा रहा हूँ। कई बार बातें सिलेबस से अलग चली जाया करती थीं। उसकी मुख्य रूचि दर्शन में थी। हम कई बार पूरे समय सिलेबस की जगह दर्शन पर ही विचार-विमर्श किया करते थे। वह आखिरी एग्जाम था, उसने कहा – 

“अब कल से तो छुट्टी मिल जाएगी तुम्हें मुझसे।”

“हाँ, अब मुझे पकना नहीं पड़ेगा।”

“हाँ, हाँ। हम तो पकाते ही हैं। सुरीली बातें तो वो… “

“देखो, मैंने कितनी बार कहा है उसका नाम न लिया करो। एक काम करो, मेरा नंबर सेव कर लो, जब भी पकाने का मन हो कॉल कर लेना।”

“मैंने नाम नहीं लिया आपकी प्रेयसी का और भला मैं क्यों कॉल करूं पकाने के लिए।”

“प्रेयसी, हूँ..! बस उसके बचपने का शिकार हो गया मैं। खैर, ये लो।” मैंने नंबर उसके फ़ोन में सेव करके उसे दिया और चलने के लिए उठा। 

“ऑल दि बेस्ट।”

“ऑल दि बेस्ट टू यू टू।” कहता हुआ मैं घर की और चल दिया। 

रास्ते में मुझे एक व्हाट्सएप्प मैसेज आया – “सॉरी, इफ आई डिस्टर्बड यू।” मैंने प्रोफाइल चेक करने के बाद मैसेज किया – “इट्स ओके।” ये तिशा भी ना मुझे परेशान करने का बस मौका ढूंढती रहती है। इस एक मैसेज ने मेरे अंदर पूर्व प्रेमिका के प्रति उठे क्रोध पर उबलते हुए दूध में पानी के छींटो का काम किया।

धीरे-धीरे एक महीना बीत गया। इस बीच हम दोनों की फ़ोन पर थोड़ी बहुत बात-चीत हो जाया करती थी। उसने बताया दी स्टेशन के पास वाली झुग्गियों में जाएंगी, ताकि बच्चों के माता-पिता को समझा सकें और पाठशाला में एडमिशन करवा सकें। पूरी बात बताने के बाद उसने पूछा – 

“क्या तुम आना चाहोगे?”

“हाँ, हाँ। कब आना है?”

“सोमवार को जायेंगे। ग्यारह बजे तक पाठशाला आ जाना।”

“आई विल बी ऑन टाइम। मिस।”

उस दिन घर में सुबह से ही मैं नाचता हुआ सा घूम रहा था। म्युज़िक के नाम पर आज इंग्लिश गाने नहीं थे वरन साठ के दशक के रोमानी गीत। नहा धोकर नौ बजे ही तैयार हो गया।  मम्मी ने मेरे व्यव्हार में आए इस परिवर्तन को देखकर आश्चर्य से पूछा- 

“कहीं जा रहे हो?”

“हाँ, पाठशाला।”

“इतना सज-धजकर!”

“नहाया ही तो हूँ बस।”

“हाँ, बस चार बार मुँह धोया है, दो बार क्रीम लगाई है और पांच  बार बाल काढ़े हैं। शीशा कितनी बार देखा है इसकी तो गिनती ही नहीं है। हैरानी तो इस बात की है कि यह वही लड़का है जो सुबह उठाये नहीं उठता, नहाना तो दूर की बात है।”

“अरे माँ! ऐसा कुछ नहीं है। अगर कहीं बाहर जाओ तो कपड़े तो ठीक से पहनने ही चाहिए। वैसे परफ्यूम कहाँ है मेरा?”

“अरे हाँ, परफ्यूम तो रह ही गया। ढूंढ लो कहाँ है। मुझे नहीं पता। बात बदल दे बस। मम्मियों को तो पागल समझते हैं आजकल के बच्चे।”

“मिल गया मुझे।”

“वापस कब तक आएगा।”

“दो-तीन बजे जाएंगे। जय श्री कृष्णा।”

मैंने घर से निकलते हुए नमस्कार किया। आज पाठशाला काफी दूर प्रतीत हो रही थी। एक-एक सेकेंड मानो मुझसे अनुमति मांगकर ही आगे बढ़ रहा था। 

“ओह! ये ट्रैफिक।”

“किसी से मिलने जा रहे हो ?” ऑटो-चालक ने मुझे सूंघते हुए पूछा। 

“नहीं, पाठशाला।”

“अच्छा..!” उसने सभी संभावनाओं और अपने सभी अनुभवों को उस एक शब्द में भरते हुए कहा। 

“जी, ग्यारह बजे तक पहुँचना है।”

“तो क्यों परेशान होते हो, अभी तो सवा दस हुए हैं।”

मैं साढ़े दस बजे ही पाठशाला पहुँच गया। रिसेप्शनिस्ट ने देखते ही कहा – “तिशा ऑफिस में है।” अभिवादन में सिर हिलाते हुए मैं ऑफिस की ओर चल दिया। तिशा ने मुझे देखते ही दी से कहा –

“दी, अनिरुद्ध भी आ गए।”

“आओ अनिरुद्ध। तिशा ने बताया तुम भी चलना चाहते हो। देखो, वहां ज़्यादा लोगों का जाना ठीक नहीं। तुम्हे और तिशा को मिलाकर बस हम पांच लोग जा रहे हैं।”

“हाँ, इनका मेरे पास फ़ोन आया था। मैंने तो मना किया और समझाया भी कि वहाँ कोई फोटो-सेशन नहीं हो रहा है पर ये समझे ही नहीं।”

मैंने उसकी तरफ प्यार भरे गुस्से से देखते हुए हाँ में सर हिलाया। 

“चलो समय भी हो ही गया है।” दी ने कुर्सी से उठते हुए कहा।

हम पाँचो पाठशाला से पैदल ही रेलवे स्टेशन की ओर चल दिए। दी उन दोनों को बात-चीत कैसे करनी है और कैसे समझना है वगैरा बता रही थीं। तिशा और मुझे अभी केवल अवलोकन का हुक्म मिला था। तिशा ने मौका पाकर पूछा – 

“किसे डेट करने जा रहे हो?”

“किसी को नहीं।” मैंने आश्चर्यचकित होते हुए उत्तर दिया। 

” लग तो रहा है। परफ्यूम-वरफ्यूम। कुछ तो मामला है।”  आँखे छोटी और चेहरे पर रहस्मयी  मुस्कान लाकर उसने पूछा। 

“परफ्यूम तो तुम्हे भी लगाना चाहिए था।”

“क्यों ?”

“और क्या इतना सज-धज कर आयी हो, बस परफ्यूम की ही कमी रह गयी है। वैसे क्या ख़ास है आज?”

“एक्चुअली, टुडे इज़ माय बर्थडे।” उसने धीरे से शरमाते हुए लहज़े में कहा। 

“क्या! सच में।”

“धीरे।”

“तुम्हे मुझे पहले बताना चाहिए था, कोई  प्रेज़ेंट ही ले आता।”

“तुम्हारे पास खुद का क्या है जो तुम मुझे प्रेज़ेंट कर सकते हो ?”

“नहीं, आज फिलॉसोफी नहीं। आज मैं इन पलों को जीना चाहता हूँ।” 

वो खिल-खिलाकर हंस पड़ी। 

हम स्टेशन के करीब पहुँच गए थे। हमारे शहर में डंपिंग ग्राउंड नहीं है पर इन झुग्गियों को देखकर लगता है मानो इन लोगों ने डंपिंग ग्राउंड में ही घर बनाए हों। जगह-जगह लगे हुए पन्नियों के ढेर, अँधेरी बदबूदार झोपड़ियां और अधनंगे घूमते हुए बच्चे। आसमान में उड़ती हुई  चीलें तो मानो दावत के ही इंतज़ार में चक्कर लगा रही थीं। 

” देख रहे हैं आप लोग, जिन लोगों के पास पेट भर खाने को नहीं है तन ढाँकने को कपड़ा नहीं है और रहने को घर नहीं है। जिनके बच्चों को भी घूम-घूमकर कचरा जमा करना पड़ता है। हमे इन लोगों को बच्चों की स्कूलिंग के लिए राज़ी करना है। इनके लिए शिक्षा ज़रूरत नहीं लक्ज़री है।”

दी यह सब कहते हुए झुग्गियों की ओर चलने का इशारा करती हैं। हम सब उस ओर चल दिए। थोड़ी आगे बढ़ने पर मैंने ध्यान दिया, तिशा मुँह पर हाथ रखे अभी भी वहीं खड़ी थी। उसने मुझे पास जाते देख मुँह फेर लिए। मैंने थोड़े गुस्से और अधिकार से कहा – 

“यहाँ इतनी भी बदबू नहीं है। चलो।” 

“अनिरुद्ध, क्या सच में कोई ईश्वर है?” उसने रूंधी हुई आवाज़ में पूछा। 

उसकी आँखों से लगातार आंसू बह रहे थे। मैं भौचक्का उसे देख रहा था। मैंने पहले कभी उसे उदास तक नहीं देखा था। मैंने खुद को सँभालते हुए कहा – 

“अवश्य है।”

“तो क्या उसका हृदय पत्थर का हो गया है? वह इन लोगों की दशा क्यों ठीक नहीं कर देता?” 

“यह ईश्वर की कर्मभूमि नहीं है।”

“नहीं, आज दर्शन की गप्पे नहीं। दर्शन इनका पेट नहीं भर सकता।” 

“नहीं, बिलकुल नहीं। पर दी जैसे लोगो को भी तो ईश्वर ने ही भेजा है।”

“सब मिलकर प्रयास करेंगे तो सभी की दशा सुधरेगी। यूं विचलित न हो तिशा।”

दोनों कुछ समय यूं ही शांत खड़े रहे। तिशा के शांत होने पर मैंने कहा – 

“चलो दी के पास चलते हैं पर पहले मुँह धो लो।”

“क्यों, मुँह को क्या हुआ?” 

“ज़्यादा कुछ नहीं, बस मेकअप उतर गया तुम्हारा।”

“काजल ही तो था बस।” यह कहते हुए उसकी आँखों में झूठा गुस्सा और होंठों पर हलकी सी मुस्कान आ गयी।

“हाँ, वही बह कर गालों पर आ गया है। अब बातें ना बनाओ और मुँह धो लो।” मैंने पानी की बोतल उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा। 

उसके मुँह धोने के बाद हम दोनों झुग्गियों की ओर बढ़ चले। दी ने तब तक यहाँ सबको समझा दिया था। काफी लोग मान भी गए थे बच्चों को पाठशाला भेजने के लिए। सभी कार्य यथावत होने के पश्चात हम सभी पाठशाला की ओर बढ़ चले। 

“तिशा, तुम्हे तो कहीं जाना था ?” दी ने तिशा से पूछा। 

“हाँ दी कहा तो था तिशा ने मुझसे भी।” मैंने कहा। 

“दी कुछ काम था मुझे घर पर।” तिशा ने हाँ में सर हिलाते हुए कहा।

“ठीक है तो तुम जाओ, आज का तो काम पूरा हो ही गया है वैसे भी।”

“थैंक्यू दी, मैं अगली गली से मुड़ जाऊँगी।”

“दी, मैं भी चलूँ।”

“अरे रुको, पहले ये  बताओ अनिरुद्ध, कैसा रहा तुम्हारा ये अनुभव?”

“काफी कुछ सीखने मिला दी।” मैंने अति संक्षिप्त उत्तर दिया। 

“अच्छा है। ठीक है तो फिर मिलते हैं।” यह कहते हुए दी आगे बढ़ गयीं। 

तिशा और मैं वहीं रुक गए। मेरे कुछ बोलने से पहले तिशा ने पूछ लिया – 

“तुम्हे नहीं जाना ?”

“नहीं, आज तुम्हारा जन्मदिवस जो है।”

“तो।”

“तो क्या, बिना दावत लिए नहीं जाऊंगा।”

“दावत के लिए तो घर चलना होगा।”

“तो चलो।”

“आओ चलें।” – कुछ हिचकते हुए। 

“वैसे कौन-कौन है तुम्हारे परिवार में ?”

“मैं और अम्मी।”

“तो तुम्हारी अम्मी से मुलाकात होगी आज।”

“नहीं। वे बाहर गयी हैं फ़िलहाल।”

“तो घर पर कोई नहीं होगा।”

” वही तो। ऐसे में…।”

“छोड़ो किसी और दिन आऊंगा घर, तुमसे तो मिल ही लिया हूँ।”

“हाँ, पर… “

“बोलो, क्या कहना चाहती हो?”

“रिज़ल्ट कब आएगा?”

“रिज़ल्ट आने ही वाला होगा, एक-दो सप्ताह में।”

“अच्छा। और बताओ?”

“और बताऊँ? आज क्या हुआ है तुम्हे ? ऐसा पहले तो कभी नहीं पूछा तुमने। वैसे भी सड़क पर खड़े हैं हम।”

“माफ़ करना। अब घर चलना चाहिए हमें।”

“हैप्पी बर्थडे, वन्स अगेन।”

“थैंक्यू, बट व्हॉट वन्स अगेन। पहली बार अब बोला है तुमने।”

“सॉरी यार। अच्छा, इसीलिए सड़क पर और बताओ पूछ रहीं थीं। सॉरी यार, सॉरी।”

“जाओ माफ़ किया इस बार।”

“थैंक्यू एंड हैप्पी बर्थडे वन्स अगेन।”

“थैंक्यू। अब जा सकते हो।” उसने मुस्कुराते हुए कहा।

“बाय। फिर मिलते हैं।”

दोनों अपने-अपने घर की ओर बढ़ चले। आज पहली बार मैंने उसका भावनात्मक पहलू देखा। हर समय आत्मसम्मान के भाव से भरे हुए चेहरे पर आज चंचलता को देखा। ईश्वर की रचना का सचमुच कोई जवाब नहीं। अब तक भावनाओं से दूर भागने वाला मैं अब उनसे प्रेम करना चाहता हूँ। यह जानते हुए भी की भावनाएं दुःख देंगी, उनके द्वारा बांटे जा रहे सुख का लोभी हुआ जाता हूँ।

अब तक हमारी केवल काम की बातें हुआ करती थीं या ज़्यादा से ज़्यादा दर्शन की। परंतु अब हम अपनी रुचियाँ भी साझा करने लगे थे। वो मुझे पुरानी-पुरानी ठुमरी भेजा करती थी और मैं नए-नए गाने, मुख्यतः अंग्रेजी। धीरे-धीरे हमारे रुझानों में तादात्म्य आ गया। कई बार अब मैं ठुमरी भेजा करता था और वो अंग्रेज़ी गीत। वो अक्सर कहा करती थी – “अनिरुद्ध तुमने मेरा सब कुछ ले लिया है। अब मैं निश्चिन्त हूँ। अब मौत का भी डर नहीं हैं मुझे। क्योंकि अगर मैं ना रही तो तुम मेरा ऋण उतार सकते हो।” मैं उसकी गहरी बातों को अक्सर टालने की कोशिश किया करता था। मज़ाक करते हुए कहता – “तुम काले कौवे खाकर आयी हो, इतनी जल्दी नहीं मरोगी।” इतना कहते ही हम दोनों खिल-खिला उठते थे। यदि हमारे भौतिक शरीर न होते और किसी को केवल हमारे स्वाभाव जानकर भेद करना होता। तो शायद दूध और पानी को अलग करने जितना ही मुश्किल होता। 

आखिर एक दिन रिज़ल्ट आ ही गया। मैं तिशा की कृपा से और वो खुदा की कृपा से पास हो गयी। हालाँकि, वो ईश्वर को नहीं मानती किन्तु सभी कार्यों का श्रेय ईश्वर को ही देती थी। उसका कहना था – “यदि इस दुनिया का अस्तित्व है तो इसे बनाने वाले का भी होगा। परंतु यदि वो सच में समझदार होगा, सर्वज्ञ होगा तो वह क्यों चाहेगा की हम उसकी पूजा करें और यदि वो ऐसा फिर भी चाहता है तो मैं ऐसे ईश्वर को ही खारिज करती हूँ। पर मैं फिर भी चाहती हूँ वो हो, ताकि जब उम्मीद की कोई किरण ना दिखाई दे तो उससे आस लगा सकूं।” मैंने उसे रिजल्ट की खुशखबरी सुनाई। उसकी आवाज़ में आज कुछ शिथिलता थी। हाल-चाल पूछने पर पता चला पिछले हफ्ते से बीमार चल रही थी। मैंने मिलने का फैसला किया। यूं तो हम दोनों को ही औपचारिकताएं पसंद नहीं, फिर भी मैंने फलों की छोटी सी टोकरी और एक गेट वेल सून कार्ड ले लिया। 

मैं उसके घर के बहार पहुंचा। उसका घर काफी बड़ा और पुराना था। पर ऐसा लगता था मानो वर्षों से रंगाई-पुताई नहीं हुई थी। मैंने दरवाज़ा खटखटाया। एक बूढी-सी औरत ने दरवाज़ा खोला और उखड़ेपन से पूछा –

“कि चाइदा ?”

“जी, मैं अनिरुद्ध। तिशा है?” मैं कुछ नरभसा गया था। 

“तुम हो अनिरुद्ध! आओ, अंदर आओ।” उनके चेहरे पर हलकी मुस्कुराहट आ गयी। उन्होंने आगे कहा – 

“आज सुबह से ही इसने मुझे परेशान कर रखा है। ये करो, वो करो। खुद तो बिस्तर में है पर मुझे चैन नहीं लेने दिया। कभी कुछ, कभी कुछ। ऐसा..”

“आप?” मैंने टोंकते हुए पूछा। 

“मैं तिशा की अम्मी। तुमने दादी सोचा होगा। क्यों?” ये कहते हुए उनके चेहरे पर एक उदास हँसी आ गयी। 

“ये रही। तिशा, देखो कौन आया है।”

“रहने दो ताई , उठाओ न अगर सो रही है तो।”

उसने तुरंत आँखें खोल लीं। उसकी आँखों में चमक और चेहरे पर प्यारी सी मुस्कराहट थी। फलों की टोकरी देखकर, मुँह सिकोड़ते हुए कहा- 

“इस सब की क्या ज़रूरत थी? तुम कब से औपचारिक हो गए?”

“ज़रूरत मुझे नहीं तुम्हें है। चेहरा देखो अपना आम की तरह पीला हो गया है। सेब खाकर लाल हो जाओ।”

“और ये कार्ड?”

“ये तो ऑटो में पड़ा मिल गया था।” मेरे इतने कहते ही तीनो हँसने लगे। 

“बैठ जा पुत्तर, खड़ा क्यों है ?” ताई ने कुर्सी की ओर इशारा करते हुए कहा। 

उसका कमरा किताबों से भरा था। मुख्यतः दर्शन और साहित्य। अलग-अलग धर्मों के ग्रन्थ भी रखे हुए थे। मैंने चुटकी लेते हुए पूछा–

“तुम मेरा सर खाने के लिए इतना सब पढ़ती हो?”

“कुछ भी पाने के लिए मेहनत तो करनी ही पड़ती है।” उसने हँसते हुए कहा। 

“इसके चक्कर में खाना-पीना भी भूल जाती है। बस इसकी…।”

“चाय तो बना लो, अम्मी।” तिशा ने टोंकते हुए कहा। 

“हाँ, हाँ। जा रही हूँ। मीठे से तो परहेज़ नहीं है पुत्तर?”

“नहीं ताई।”

ताई चाय बनाने के लिए रसोई की ओर चली गयीं। हम दोनों कुछ देर तक शांत रहे। तिशा ने हलकी गंभीरता से पूछा –

“इतना परेशान होने की क्या ज़रुरत थी?”

“क्यों औपचारिकताएं कर रही हो? लगता है बुखार तुम्हारे दिमाग में चढ़ गया है।”

“तो और हो परेशान, मेरी बला से।” – मुँह चिढ़ाते हुए बोली।

“तो इतनी भयंकर हिंदी होने का कारण अब समझ आया मुझे।” – मैंने बात बदलते हुए कहा। 

“भयंकर क्या यार! परिवेश जो सीखा दे और हाँ मैंने तुम्हारी स्टोरी पढ़ी, कितना बकवास लिखते हो तुम।” 

मेरा निस्तब्ध चेहरा देखकर थोड़ा विनम्र शब्दों में कहा – 

“दरसल , वो कहानी लग ही नहीं रही है। ऐसा लगता है मनो बस अपनी फिलोसॉफी दिखा रहे हो। बेहतर होता तुम उसे निबंध के रूप में लिखते।”

“थैंक्यू, आगे से ध्यान रखूँगा।” मैंने अनमने भाव से कहा। 

“मुँह मत बनाओ। सुधार करो। याद रखो – निंदक नियरे…।”

“हाँ, हाँ। अब आँगन पर भी कब्ज़ा करने का मन है तुम्हारा।”

“हाँ…”

हम दोनों हँसने लगे। इतने में ताई चाय-नाश्ता लेकर आ गयीं। 

“किस बात पर हँस रहे हो ?”

“कुछ नहीं ताई, मैंने एक कहानी लिखी थी, उसमे दस बुराई निकाल दीं।”

“बुराई! मुझसे तो बड़ी तारीफ कर रही थी।”

“तारीफ और तिशा।”

“हैरानी तो मुझे भी हुई, पुत्तर। पहली बार ऐसा किया इसने। कह रही थी काफी अच्छा लिखा है बस एक दो गलतियां की हैं।”

“वही दो-एक गलतियां बता रही थी। अम्मी, इन्हे। दस बुराई!”

“चलो छोड़ो ये सब, चाय पी लो।”   

मैंने प्याली उठाते हुए पूछा – “ताई , तिशा के पिता…”

“इसके अब्बू तो इसके जन्म के साल भर बाद ही गुज़र गए थे। एक-डेढ़ साल तो मुझे होश ही नहीं था, तिशा को इसकी दादी ने संभाला। उनके गुजरने के बाद हम दोनों ही एक दूसरे के सहारे बने हुए हैं।”

“तब से कभी मैं अम्मी बन जाती हूँ कभी आप।” – तिशा ने माहौल हल्का करते हुए कहा। 

“अम्मी! अपना ख्याल तो ठीक से रख नहीं पाती। मैं इसे कितना समझाती हूँ पुत्तर। क्यों पाठशाला में अपना समय बर्बाद करती हो? तुम्हे पहले अपने भविष्य की चिंता करनी चाहिए। एक बार खुद के जीवन में स्थिरता आ जाये तो चाहे जो करो। खुद का ही पेट नहीं भरा होगा तो दूसरे का कैसे भरोगे। बस ‘के सेरा सेरा’ गाती घूमती रहती है।”

“इसने तो मुझसे कहा था इसका लक्ष्य तय है और वह विकल्प तो काफी अच्छा भी है।”

“पुत्तर लक्ष्य तय करने से हासिल तो नहीं हो जाते। उसकी ओर प्रयत्न तो करो। तुम्हे तो पता है उसके लिए कितना समय चाहिए। पर इसका सारा समय तो पाठशाला में बीतता है।”

“हाँ, तिशा। उसके लिए बहुत समय चाहिए। ऐसे काम नहीं चलेगा।”

“तुमने भी अम्मी के सुर में सुर मिला दिए।”

“ताई सही कह रही हैं तिशा।”

“अपना भी तो बताओ।”

“ताई मेरा कोई बड़ा लक्ष्य नहीं है एक छोटी सी नौकरी मिल जाये काफी होगा।”

“लक्ष्य छोटे-बड़े नहीं होते पुत्तर। हासिल ना हो केवल तब तक बड़ा लगता है एक बार हासिल हो जाए फिर कोई लक्ष्य बड़ा नहीं।”

“ये तो आपने सोलह आने सच कही ताई। अच्छा, अब मैं चलूँ। मेरे लिए कोई काम हो तो बताना। मुझे पुत्तर बोला है आपने।” – मैंने उठते हुए कहा। 

“हाँ, पुत्तर।”

“बाय , तिशा। गेट वेल सून।”

“अच्छा ताई नमस्ते।” मैं घर की ओर बढ़ गया। 

हमारा सम्बन्ध गहरा होने लगा था। हालाँकि हमारी बात-चीत काफी काम हो गयी थी। ऐसा लगता था कि बात करने की ज़रूरत ही नहीं है। मेरे और तिशा के  विचार, स्वाभाव यहाँ तक की शब्दों और फैसलों में भी सरूपता आ गयी थी। तिशा के समूह में सभी मुझे जानते थे पर मेरे समूह में तिशा का ज़िक्र भी नहीं था। वैसे भी तिशा के समूह में था ही कौन, अम्मी और पाठशाला। वह अपने लक्ष्य के प्रति एकाग्रचित्त होकर लग गयी थी। ताई और मैं अक्सर उसकी हौसलाफज़ाई किया करते। परंतु अब वह अपने स्वास्थ्य के प्रति लापरवाह होती जा रही थी। वह नियमित अंतराल पर अस्वस्थ भी होने लगी। पाठशाला और अपने लक्ष्य में से वह किसी को नहीं छोड़ना चाहती थी। वह सोमवार की शाम थी। तिशा ने कार्ड मेरे हाथ में थमाते हुए कहा –

“लो अब मुझे इस कार्ड की ज़रूरत नहीं। अब मैं पूरी तरह स्वस्थ हूँ।”

“अब लक्ष्य के पीछे इस प्रकार न पड़ना।”

“अनिरुद्ध, अब मुझे कोई चिंता नहीं है। अगर मैं न कर पायी तो तुम उसे पूरा कर दोगे। ऋण उतरना चाहिए, चाहे तुम उतारो या मैं।” उसके स्वर कोमल होते हुए भी मेरे दिल को भारी कर रहे थे।

“देखो, ये ज़बरदस्ती न करो।”

“मैं कभी ज़बरदस्ती नहीं करती।”

“अच्छा जी। और उस दिन वहाँ… ” 

“चुप। मौका मिल गया बस तुम्हें।”

“तब तो रुक नहीं…”

“अम्मी।” उसने दरवाज़े की ओर देखते हुए कहा।

हाँलाकि वहाँ कोई नहीं था पर मुझे वापस उसी विषय पर लाने का उसका यह प्रयत्न सफल रहा। मैंने कहा – “ये मेरे बस का नहीं है यार।”

“अनिरुद्ध, मुझे लगा था हम एक से हैं।”

“हाँ हैं। पर ये मुश्किल है।”

“मुझे फिर ज़बरदस्ती करनी पड़ेगी।” चेहरे पर नटखट मुस्कान के साथ उसने कहा।

“प्लीज…” मैंने भी नटखटता के साथ हाथ जोड़ते हुए कहा।

“क्या हुआ पुत्तर ?” ताई ने पीछे से आवाज़ दी। 

“कुछ नहीं ताई , तिशा देखो कैसे बहकी बहकी बातें कर रही है।”

“पता नहीं क्या हुआ है इसे जब से थोड़ी ठीक होने लगी है, बुद्धि ही फिर गयी है। मुझसे कह रही थी, अब और परेशान नहीं करुँगी। सब सही हो जाएगा।”

“तो इसमें क्या गलत कहा मैंने।” – तिशा चहककर बोली। 

उस दिन हम काफी देर तक बातें करते रहे घर जाने का मन ही नहीं हो रहा था। जी चाहता था समय यहीं रुक जाये, पर आज घंटे भी सेकेंडो की भांति प्रतीत हो रहे थे। मैंने घड़ी की ओर देखकर खड़े होते हुए कहा – “अच्छा, ताई ! अब मैं चलूँ।”  थोड़ा रूककर मैंने तिशा की तरफ देखा। उसका चेहरा अवसादपूर्ण था। वो मुझे ऐसे देख रही थी मानों आखिरी बार देख रही हो। मैं वापस जाकर उसके पास बैठ गया। उसने अति कोमल स्वर में पूछा – 

“कुछ कहना था?”

“नहीं।”

“मुझे तुम पर पूरा भरोसा है। अब तुम जाओ।” – यह कहते हुए  वो आँखें बंद करके लेट गई।

आज मैं ‘बाय’ बोले बिना ही घर से निकल गया। मेरा मन भारी होने लगा था। ऐसा लग रहा था मानों कोई काँटा था जो ह्रदय को चुभ रहा था। मेरा मन बार-बार वापस लौटने को हो रहा था पर पाँव थे कि घर की ओर बढे चले जा रहे थे। तिशा का चेहरा बार-बार आँखों के सामने छा रहा था मानों खुद आकर बुला रही हो। खुद पर खीझ भी रहा था – ” आज क्यों इतना कमज़ोर पड़ गया मैं। क्या एक बार उसे कह नहीं सकता था ? कम से कम आज अपने डर पर काबू पा सकता था।” सोचते-सोचते पता नहीं कब घर पहुँचा। जाते ही सीधे लेट गया। अब कुछ सोचना नहीं चाहता था। ” बस कल उसे सब कह दूंगा।” लेटे-लेटे कब नींद आ गयी पता ही नहीं चला। सीधे सुबह आँख खुली। तिशा के पांच मिस्ड कॉल पड़े थे। मैंने फ़ोन मिलाया। तीन-चार बार मिलाने के बाद भी किसी ने कॉल रिसीव नहीं किया। “लगता है इसकी तबियत फिर खराब हो गयी, ये  लड़की भी न ज़रा सा ख्याल नहीं रखती और अब फ़ोन नहीं उठा रही। क्या करूँ इसका ?” यह सब सोचते हुए मैं तिशा के घर जाने के लिए निकला। “आज तो उसे बोल ही दूंगा। बिलकुल क्लियर। बस, अब और डर नहीं। ब्लडी सेक्टेरियंस।”

“हमरी अटरिया पे आजा रे साँवरिया…”  मैं गुनगुनाने लगा। 

मेरे फ़ोन की रिंग बजी। दी का कॉल आ रहा था। मैंने कॉल पिक किया। 

“हेलो, दी नमस्ते।”

“अनिरुद्ध, तिशा ! तिशा अब नहीं रही।” उनकी आवाज़ रुँधी हुई थी।

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